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ग्यारहवाँ सूक्त
ॠ. 5. 72
यज्ञमें आवाहन
[ ऋषि मित्र और वरुणको यज्ञमें ऐसे देवताओंके रूपमें आवाहित करता है जो मनुष्यको सत्यके विधानके अनुसार मार्ग पर ले जाते हैं और उस विधानकी क्रियाओंके द्वारा हमारी आध्यात्मिक उपलब्धियोंको संपुष्ट करते हैं । ] १ आ मित्रे वरुणे वयं गीर्भिर्जुहूमो अत्रिवत् । नि बर्हिषि सदतं सोमपीतये ।।
(वयं) हम (गीर्भि:) वाणियोंसे (अत्रिवत् मित्रे वरुणे आ जुहुम:) अत्रिकी तरह मित्र और वरुणके प्रति यज्ञ करते हैं । हे मित्र और वरुण ! (सोमपीतये) सोममधुका पान करनेके लिए (बर्हिषि नि सदतम्) विशालताके आसन पर विराजो । २ व्रतेन स्थो ध्रुवक्षेमा धर्मणा यातयज्जना । नि बर्हिषि सदतं सोमपीतये ।।
हे मित्र और वरुण तुम (व्रतेन) अपनी क्रियाके द्वारा (ध्रुवक्षेमा स्थः) कल्याणकी उपलब्धियोंको स्थिर रूपमें सुरक्षित रखते हो और (धर्मणा) अपने विधानके द्वारा (यातयत्-जना) मनुष्योंको ठीक मार्ग पर चलाते हो ।
(सोमपीतये) सोममधुका पान करनेके लिए (बर्हिषि नि सदतम्) विशा-लताके आसन पर विराजो । ३ मित्रश्च नो वरुणश्च जुषेतां यज्ञमिष्टये । नि बर्हिषि सदतां सोमपीतये ।।
(मित्र: च वरुण: च) मित्र और वरुण (नः यज्ञं जुषेताम्) हमारे यज्ञमें आनंद लें, (इष्टये) जिससे कि हम अपने अभीष्टको प्राप्त कर सकें ।
(सोमपीतये) सोममधुका पान करनेके लिए वे (बर्हिषि नि सदताम्) विशालताके आसन पर विराजें ।n २११
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